रामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: समधियों
का मिलाप
दूलह को आसन पर बैठाकर, आरती करके देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही
हैं। वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र और गहने
निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बनाकर
कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री
रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।
नाई, बारी, भाट और नट श्री
रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनंदित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके हृदय में हर्ष
समाता नहीं है ।
वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से
मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिए उपमा
खोज-खोजकर लजा गए ।
जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन
में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध
देखकर देवता अनुरक्त हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे ।
वे कहने लगे- जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत
विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार
से समान साज-समाज और बराबरी के समधी तो आज ही देखे ।
देवताओं की सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई।
सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मंडप में ले आए।
मंडप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से मुनियों के मन भी
मोहित हो गए। जनकजी ने अपने हाथों से
ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी
की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय
की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती।
छं0-बैठारि आसन आरती
करि निरखि बरु सुखु पावहीं।।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं।।
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।
दो0-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।319।।
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।।
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।।
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।
जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।।
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।
देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची।।
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।
छं0-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।।
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही।।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं।।
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।
दो0-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।319।।
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।।
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।।
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।
जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।।
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।
देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची।।
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।
छं0-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।।
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही।।
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