श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग:
राजाओं द्वारा धनुष
का न टूटना और राजा जनक की अकुलाहट प्रसंग:
वे
मूर्ख राजा तमककर धनुष को पकड़ते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता
जाता है ।
तब
दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे,
तो
भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन चलायमान नहीं होता ।
सब
राजा उपहास के योग्य हो गए, जैसे वैराग्य के बिना
संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति,
विजय, बड़ी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए ।
राजा
लोग हृदय से हारकर श्रीहीन हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को असफल
देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे ।
मैंने
जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप
के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत
से रणधीर वीर आए ।
दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़
नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।250।।
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।
डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी।।
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।।
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।।
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा।।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।250।।
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।
डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी।।
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।।
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।।
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा।।
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