और उनका जयगान करना ।
श्री रघुनाथजी के
कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए ।जब परशुरामजी
धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में
बड़ा आश्चर्य हुआ ।
तब उन्होंने श्री
रामजी का प्रभाव जाना, जिसके कारण उनका शरीर पुलकित और
प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले- (प्रेम उनके हृदय में समाता न था)- हे
रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले
अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने
वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और
भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो।
हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में
अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब
अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि धारण करने वाले! आपकी जय हो ।
मैं एक मुख से आपकी
क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस!
आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर
दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए ।
हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी!
आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर
परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए।
यह देखकर दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के डर
से कि कहीं रामचन्द्रजी हमसे अपमान का बदला न लें, वे
कायर चुपके से पलायन कर गए ।
दो0-जाना राम प्रभाउ तब
पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात।।284।।
जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु।।
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।
बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।।
सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।।
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।।
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।।
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने।।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात।।284।।
जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु।।
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।
बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।।
सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।।
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।।
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।।
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने।।
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