श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग: सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश
प्रसंग: सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश
तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा।
सब सखियाँ उन्हें यज्ञशाला में ले कर आ गईं । तुलसीदास जी कहते हैं कि रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा
का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे काव्य की सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के
अंगों के लिए दी जाती हैं। सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देना अपकीर्ति मोल लेना है ।जगत में ऐसी सुंदर युवती
है ही कहाँ जिसकी उपमा उन्हें दी जाए ।
पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि
देखा जाए तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं, तो
उनमें सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं, पार्वती
अंर्द्धांगिनी हैं ,(अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के रूप में
उनका आधा ही अंग स्त्री का है, शेष आधा अंग पुरुष-शिवजी का
है), कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का जानकर बहुत
दुःखी रहती है और जिनके विष और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते) प्रिय
भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाए
।
फिर जिन लक्ष्मीजी की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से,
जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण
किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मंदराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं
और दैत्यों ने मिलकर। जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुंदरी कहते हैं,
उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुंदर एवं स्वाभाविक ही कठोर
उपकरण। ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्री जानकीजी की समता को कैसे पा सकती
हैं।
दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं।।246।।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं।।246।।
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका
रूप गुन खानी।।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।
जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।
जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।
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