श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: राजा जनक की अकुलाहट
प्रसंग: राजा जनक की अकुलाहट
राजा जनक के वचन ऐसे लग रहे थे ,मानो क्रोध में सने हो ।
धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी
विजय और अत्यन्त सुंदर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं ।
यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता, परन्तु
किसी ने भी शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया। अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिल भर भूमि भी छुड़ा न सका ।
अब
कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया,
पृथ्वी
वीरों से खाली हो गई। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं ।
यदि
प्रण छोड़ता हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ,
कन्या
कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता ।
जनक
के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे,
उनकी
भौंहें टेढ़ी हो गईं, होठ फड़कने लगे और
नेत्र क्रोध से लाल हो गए ।
दो0-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय।।251।।
कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।।
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।।
अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।।
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ।।
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।
जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी।।
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें।।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय।।251।।
कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।।
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।।
अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।।
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ।।
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।
जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी।।
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें।।
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