श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग: राम –परशुराम संवाद
प्रसंग: राम –परशुराम संवाद
तब परशुरामजी हृदय
में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उलटा
हमीं को ज्ञान सिखाता है। तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू
छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे ।
अरे शिवद्रोही! छल
त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी
कुठार उठाए बक रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी सिर झुकाए मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं ।
श्री रामचन्द्रजी
ने मन ही मन कहा- दोष तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं। कहीं-कहीं सीधेपन
में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी वंदना करते हैं, टेढ़े चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता ।
श्री रामचन्द्रजी
ने (प्रकट) कहा- हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़िए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर
आगे है, जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, हे
स्वामी! वही कीजिए। मुझे अपना अनुचर जानिए ।
दो0-परसुरामु तब राम
प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु।।280।।
बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।।
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।।
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ।।
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू।।
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू।।
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।।
जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी।।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु।।280।।
बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।।
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।।
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ।।
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू।।
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू।।
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।।
जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी।।
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