रामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: पुत्रों को हृदय से लगाकर राजा दशरथ ने
अपने दुःसह दुःख को मिटाया। प्रसंग: पुत्रों को हृदय से लगाकर राजा दशरथ ने
जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर
उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले ।
पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर
उनको दण्डवत् प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और
आशीर्वाद देकर कुशल पूछी।
फिर दोनों भाइयों को दण्डवत् प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में
सुख समाया नहीं। पुत्रों को हृदय से लगाकर उन्होंने अपने दुःसह दुःख को मिटाया।
मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों ।
फिर उन्होंने वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनि श्रेष्ठ ने
प्रेम के आनंद में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की
वंदना की और मनभाए आशीर्वाद पाए ।
भरतजी ने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम किया।
श्री रामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर
हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले ।
दो0- भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।307।।
.मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।।
कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।
पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।।
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।।
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।।
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं।।
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा।।
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।307।।
.मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।।
कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।
पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।।
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।।
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।।
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं।।
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा।।
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।
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