श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग: सीताजी ने यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं।
प्रसंग: सीताजी ने यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं।
प्रभु
श्री रामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चंचल नेत्र इस
प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो
चन्द्रमंडल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रही हों । सीताजी
की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। लाज रूपी रात्रि को
देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने में ही रह जाता है।
अपनी
बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गईं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आईं
कि यदि तन, मन और वचन से मेरा
प्रण सच्चा है और श्री रघुनाथजी के चरण कमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त
है, तो सबके हृदय में
निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी अवश्य बनाएँगे।
जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है,
वह
उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह
नहीं है ।
प्रभु
की ओर देखकर सीताजी ने यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या
रहेगा ही नहीं ।कृपानिधान श्री रामजी सब जान गए। उन्होंने सीताजी को देखकर धनुष की
ओर कैसे ताका, जैसे गरुड़जी छोटे से
साँप की ओर देखते हैं ।
दो0-प्रभुहि चितइ पुनि
चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल।।258।।
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना।।
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी।।
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे।।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल।।258।।
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना।।
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी।।
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे।।
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