श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग:
प्रसंग:
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए,
क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर
मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और सबका अहित करते हैं ।
हे मुनिराज! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध
त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा। खड़े-खड़े पैर
दुःखने लगे होंगे, बैठ जाइए ।
यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाए और किसी बड़े कारीगर को बुलाकर जुड़वा दिया जाए।
लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं- बस, चुप
रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं ।
जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं
और मन ही मन कह रहे हैं कि छोटा कुमार
बड़ा ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से
जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है ।
तब श्री रामचन्द्रजी पर एहसान जता कर
परशुरामजी बोले- तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर
का कैसा सुंदर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा!
दो0-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल।।277।।
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया।।
टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने।।
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई।।
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं।।
थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी।।
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी।।
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा।।
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं।।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल।।277।।
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया।।
टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने।।
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई।।
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं।।
थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी।।
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी।।
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा।।
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं।।
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