श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग:
राम –परशुराम संवाद प्रसंग:
जब श्री रामचन्द्रजी पर
एहसान जताते हुए परशुरामजी यह वचन बोले- तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा
रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे विष के रस से
भरा हुआ सोने का घड़ा! तो यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर
हँसे। तब श्री रामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे
लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरुजी के पास चले गए ।
श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त
विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो
स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिए । बर्रै और बालक का एक
स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर लक्ष्मण ने तो कुछ काम भी नहीं
बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ । अतः हे
स्वामी! कृपा, क्रोध, वध और बंधन,
जो कुछ करना हो, दास समझकर मुझ पर कीजिए। जिस
प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो। हे मुनिराज! बताइए, मैं
वही उपाय करूँ ।
मुनि ने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाए,
अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैंने
कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या?
दो0- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि
नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम।।278।।
अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी।।
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना।।
बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ।।
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा।।
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई।।
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई।।
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें।।
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा।।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम।।278।।
अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी।।
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना।।
बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ।।
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा।।
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई।।
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई।।
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें।।
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा।।
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