रामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: बारात को
लिवाने सबलोग जनवासा गए ।
यह जानकर
कि अब निर्मल और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र
बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा, तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देरी
का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर
ले आए ।
शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा
मंगल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुंदर
सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं ।
सब लोग
इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का वैभव देखकर उनको देवराज इन्द्र
भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे ।
उन्होंने
जाकर विनती की- समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाड़ों
पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी
मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले ।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल।।312।।
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा।।
सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए।।
संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे।।
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता।।
लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती।।
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू।।
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ।।
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा।।
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