श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग:
धनुषयज्ञ शाला में श्रीराम को लोगों ने अपने –अपने भाव के
अनुरूप देखा ।प्रसंग:
स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही
हैं। मानो श्रृंगार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो ।
विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं।
जनकजी के सजातीय प्रभु को किस तरह देख रहे हैं, जैसे सगे सजन प्रिय लगते हैं
।
जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन
नहीं किया जा सकता। योगियों को वे शांत, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे ।हरि
भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा।
सीताजी जिस भाव से श्री रामचन्द्रजी को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो
कहने में ही नहीं आता । उस स्नेह और सुख का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं
सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था,
उसने कोसलाधीश
श्री रामचन्द्रजी को वैसा ही देखा ।
* नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥
चौपाई :
* बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन
सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥
* सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति
बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2॥
* हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3॥
* उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4॥
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