गुरुवार, 8 सितंबर 2016

248-. जनकप्रतिज्ञा की घोषणा


श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग: जनकप्रतिज्ञा की घोषणा

परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं। वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं
श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर सब एकटक उन्हीं को देखने लगे। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं-
हे विधाता! जनक की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुद्धि उन्हें दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजी का विवाह रामजी से कर दें ।
संसार उन्हें भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है। हठ करने से अंत में भी हृदय जलेगा। सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह साँवला ही है ।
भावार्थ:-तब राजा जनक ने वंदीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए। राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद न था ।
दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि।।248।।
राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।।
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई।।
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू।।
जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू।।
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू।।
तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए।।
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा।।



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