श्री रामजी ने सब
लोगों की ओर देखा और फिर श्री रामजी ने सीताजी की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल
जाना ।
उन्होंने जानकीजी
को बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। यदि प्यासा आदमी
पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी
क्या करेगा? सारी खेती के सूख
जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर
फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर
श्री रामजी ने जानकीजी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए ।
मन ही मन उन्होंने
गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे हाथ में लिया, तब वह धनुष बिजली
की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा हो गया ।धनुष
को लेते, चढ़ाते और जोर से
खींचते हुए किसी ने नहीं लखा अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को
कब उठाया, कब चढ़ाया और कब
खींचा, इसका किसी को पता
नहीं लगा, सबने श्री रामजी को
धनुष खींचे खड़े देखा। उसी क्षण श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर
कठोर ध्वनि से सब लोक भर गए ।
घोर, कठोर शब्द से (सब)
लोक भर गए, सूर्य के घोड़े
मार्ग छोड़कर चलने लगे। दिग्गज चिग्घाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप
कलमला उठे। देवता, राक्षस और मुनि
कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदासजी कहते हैं कि जब सब को निश्चय हो गया कि श्री रामजी
ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब 'श्री रामचन्द्र की जय' बोलने लगे।
दो0-राम बिलोके लोग सब
चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि।।260।।
देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।।
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही।।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि।।260।।
देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।।
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही।।
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