गुरुवार, 8 सितंबर 2016

266-सीताजी दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर सोच में पड़ जाती हैं



श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
     प्रसंग:
रानियों सहित
सीताजी दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर सोच में  पड़ जाती हैं कि न जाने विधाता अब क्या करने वाले हैं।
नीच राजाओं के  अनर्गल प्रलाप के प्रत्युत्तर  में प्रतिष्ठावान राजाओं ने उनसे कहा कि ईर्षा, घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर श्री रामजी की छबि को देख लो। लक्ष्मण के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो । जैसे गरुड़ का भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करने वाला सब प्रकार की सम्पत्ति चाहे, लोभी-लालची सुंदर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता चाहे तो क्या पा सकता है? और जैसे श्री हरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति चाहे, हे राजाओं! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है ।
कोलाहल सुनकर सीताजी शंकित हो गईं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गईं, जहाँ सीताजी की माता थीं। श्री रामचन्द्रजी मन में सीताजी के प्रेम का बखान करते हुए स्वाभाविक चाल से गुरुजी के पास चले ।
रानियों सहित सीताजी दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर सोच के वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या करने वाले हैं। राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर-उधर ताकते हैं, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के डर से कुछ बोल नहीं सकते ।

दो0-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु।।266।।
बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू।।
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही।।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।।
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा।।
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी।।
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं।।
रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया।।
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं।।

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