शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

318-श्री रामचन्द्रजी का मंडप में आना ।




रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: श्री रामचन्द्रजी का मंडप में आना ।

श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते । मंगल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए ।
पंचशब्द (तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। रानी ने आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मंडप में गमन किया
दशरथजी अपनी मंडली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए। समय-समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करते हैं ।
आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी मंडप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए ।

दो0-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु।।318।।

नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी।।
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू।।
पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना।।
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा।।
दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे।।
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला।।
नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई।।
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए।।

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