गुरुवार, 8 सितंबर 2016

244:सबसे सुंदर मंच पर राजा जनक ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया।

श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग:सबसे सुंदर मंच पर राजा जनक ने
मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया।

सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था। स्वयं राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया ।श्री राम को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। उनके तेज को देखकर सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं । इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि शिवजी के विशाल धनुष को (जो संभव है न टूट सके) बिना तोड़े भी सीताजी श्री रामचन्द्रजी के ही गले में जयमाला । यों सोचकर वे कहने लगे  हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो ।
दूसरे राजा, जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हँसे। उन्होंने कहा- धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है ,फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है ?
काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे। यह घमंड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुस्कुराए ।
* सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244
चौपाई :
* प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1
* बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2
* बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3
* एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें