रामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग:
परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए।प्रसंग:
राजा जनक ने
विश्वामित्र जी से कहा-श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे
कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिए ।
देवताओं ने नगाड़े
बजाए, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के
स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए। उनका मोहमय शूल मिट गया ।
खूब जोर से बाजे
बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली तथा कोयल
के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर सुंदरगान करने लगीं ।
जनकजी के सुख का
वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो जन्म का दरिद्री धन का खजाना
पा गया हो! सीताजी का भय जाता रहा, वे ऐसी सुखी हुईं जैसे
चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है ।
जनकजी ने
विश्वामित्रजी को प्रणाम किया और कहा- प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने
धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो
सो कहिए॥3॥
मुनि ने कहा- हे
चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के
टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह
मालूम है ।
दो0-देवन्ह दीन्हीं
दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।285।।
अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।।
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी।।
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।।
गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।।
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई।।
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।।
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु।।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।285।।
अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।।
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी।।
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।।
गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।।
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई।।
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।।
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु।।
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