श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग:
लक्ष्मण –परशुराम
संवाद प्रसंग:
परशुरामजी से क्षमा-याचना करते हुए लक्ष्मण जी ने कहा –
इस धनुष-बाण को देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो,
तो उसे हे महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी
क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले-
हे विश्वामित्र! सुनो,
यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश
होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है।
यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है ।
अभी क्षण भर में यह काल का
ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष
नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप,
बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो ।
लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि!
आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है?
आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की
है । इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत
सहिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और
क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते ।
दो0-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर।।273।।
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर।।273।।
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
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