श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: श्री लक्ष्मणजी का क्रोध ।
प्रसंग: श्री लक्ष्मणजी का क्रोध ।
धनुष तोड़ने की आज्ञा मुनि विश्वामित्र ने
श्री राम को प्रदान की ।
श्री लक्ष्मण ने कहा
-हे
नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते
की तरह तोड़ दूँ। यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है,
फिर
मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा ।
ज्यों ही लक्ष्मणजी
क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी लोग और सब
राजा डर गए। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए ।
गुरु विश्वामित्रजी,
श्री
रघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे। श्री
रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया । विश्वामित्रजी
शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो,
शिवजी
का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ ।
गुरु के वचन सुनकर
श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ,
न
विषाद और अपने खड़े होने की ढंग
से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही
उठ खड़े हुए ।
दो0-तोरौं छत्रक दंड
जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ।।253।।
लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।।
सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने।।
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।।
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे।।
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ।।253।।
लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।।
सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने।।
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।।
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे।।
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।
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