श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
परशुरामजी
क्रोध के कारण श्री रामचन्द्रजी ने सब
लोगों को भयभीत देखा और सीताजी को डरी हुई
जानकर बोले-
हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका
कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते?
यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-
सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम
करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के
धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है । वह
इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे
जाएँगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए
बोले-
हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ
तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष
पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा
स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे ।
दो0-सभय बिलोके लोग सब
जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।270।।
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।270।।
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
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