श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग:
राम –परशुराम संवाद प्रसंग:
श्री रामचन्द्रजी
ने परशुरामजी को बार-बार 'मुनि' और 'विप्रवर' कहा। तब परशुरामजी कुपित होकर बोले- तू भी
अपने भाई के समान ही टेढ़ा है।
तू मुझे निरा
ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और
मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान ।
चतुरंगिणी सेना
सुंदर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जाने वाली लकड़ियाँ) हैं। बड़े-बड़े राजा उसमें आकर
बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया
है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किए हैं ।
मेरा प्रभाव तुझे
मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके
बोल रहा है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया
है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है ।
श्री रामचन्द्रजी
ने कहा- हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी भूल बहुत छोटी
है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान
करूँ?
दो0-बार बार मुनि
बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम।।282।।
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।।
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु।।
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।।
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।।
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।।
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना।।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम।।282।।
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।।
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु।।
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।।
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।।
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।।
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें