शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

310-सखियाँ सीताजी की ससुराल और भरत-शत्रुघन के बारे में चर्चा करती हैं ।








रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: 
सखियाँ सीताजी  की ससुराल और भरत-शत्रुघन के बारे में  चर्चा करती हैं ।

 सखी कह रही है कि जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजी को बुलावेंगे और करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर दोनों भाई सीताजी को विदा कराने आया करेंगे । तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगर निवासी श्री राम-लक्ष्मण को देख-देखकर सुखी होंगे ।
हे सखी! जैसा श्री राम-लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अंग बहुत सुंदर हैं। जो लोग उन्हें देख आए हैं, वे सब यही कहते हैं ।
एक ने कहा- मैंने आज ही उन्हें देखा है, इतने सुंदर हैं, मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्री रामचन्द्रजी की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते ।
लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है ।
तुलसीदास जी कहते  हैं कि कवि और कोविद (विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता से  यह विनती करती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुंदर मंगल गावें।
दो0-बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय।।310।।
बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई।।
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी।।
सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा।।
स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए।।
कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे।।
भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।
लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा।।
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं।।
छं0-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।।
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं।।
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं।।
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