गुरुवार, 8 सितंबर 2016

264-तीनों लोकों में यश फैल गया



श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
     प्रसंग:
तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ दिया और देवता फूल बरसाने लगे।

श्री रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गए मानो सूर्य को देखकर कुमुदों का समूह सिकुड़ गया हो ।
नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं ।
देवताओं की स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथों से पुष्पों की अंजलियाँ छूट रही हैं। जहाँ-तहाँ ब्रह्म वेदध्वनि कर रहे हैं और भाट लोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे हैं ।
पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी को वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और सामर्थ्य से बहुत अधिक निछावर कर रहे हैं ।
श्री सीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हों। सखियाँ कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ, किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं ।

सो0-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।264।।
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे।।
सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा।।
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं।।
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं।।
महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा।।
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी।।
सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी।।
सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता।।

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