गुरुवार, 8 सितंबर 2016

279-राम –परशुराम संवाद

श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
     प्रसंग:
राम –परशुराम संवाद

मुनि ने कहा था -हे राम! क्रोध कैसे जाए, अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या?
मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ ।
हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है। राजाओं का घातक यह कुठार भी कुण्ठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी?
आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कुराकर सिर नवाया -आपकी कृपा रूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड़ रहे हैं । हे मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे।
परशुरामजी ने कहा- हे जनक! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में निवास करना चाहता है । इसको शीघ्र ही आँखों की ओट क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखने में छोटा है, पर है बड़ा खोटा।
लक्ष्मणजी ने हँसकर मन ही मन कहा- आँख मूँद लेने पर कहीं कोई नहीं है ।

दो0-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर।।279।।
बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती।।
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ।।
आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा।।
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला।।
जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता।।
देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू।।
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा।।
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं।।

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