रामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: महाराज जनक के दूत महाराज दशरथ से कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को तोड़ डाला ।
प्रसंग: महाराज जनक के दूत महाराज दशरथ से कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को तोड़ डाला ।
महाराज जनक के पूछने पर
दूत कहते हैं कि हे महाराज! सुनिए, वहाँ ,जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए, रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने
बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़
डालता है!
धनुष टूटने की बात सुनकर
परशुरामजी क्रोध में भरे आए और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखलाईं। अंत में
उन्होंने भी श्री रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार
से विनती करके वन को गमन किया ।
हे राजन्! जैसे श्री रामचन्द्रजी
अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेज निधान फिर लक्ष्मणजी
भी हैं, जिनके देखने मात्र से राजा लोग
ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने
से काँप उठते हैं ।
हे देव! आपके दोनों बालकों को
देखने के बाद अब हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं। प्रेम, प्रताप और वीर रस में पगी हुई दूतों की वचन रचना
सबको बहुत प्रिय लगी ।
सभा सहित राजा प्रेम में मग्न हो
गए और दूतों को निछावर देने लगे। उन्हें निछावर देते देखकर कि यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। दूतों का धर्मयुक्त बर्ताव देखकर सभी ने
सुख माना ।
दो0-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा
महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल।।292।।
सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए।।
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।
राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।।
कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।।
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।।
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना।।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल।।292।।
सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए।।
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।
राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।।
कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।।
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।।
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना।।
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