श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग:
लक्ष्मण –परशुराम
संवाद प्रसंग:
विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा-
सर्वत्र विजयी होने के कारण मुनि श्री राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ
रहे हैं, इसलिए उन्हें सब हरा ही हरा सूझ रहा है , किन्तु यह लोहमयी खाँड़ है, ऊख की (रस की)खाँड़ नहीं
जो मुँह में लेते ही गल जाए। परंतु मुनि
अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं ।
लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन
नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से
तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है । वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत
दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब
करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ ।
लक्ष्मणजी के कडुए वचन सुनकर परशुरामजी ने
कुठार सम्हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। लक्ष्मणजी ने कहा- हे
भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के
शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ ।
आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले हैं।
हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर 'अनुचित
है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे।
तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया।
दो0-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।275।।
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।275।।
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।
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