श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग:
श्री
लक्ष्मणजी का क्रोधप्रसंग:
भावार्थ:-श्री लक्ष्मणजी
को जनक के वचन बाण से लगे
पर श्री राम जी के डर से कुछ कह तो सकते नहींथे
पर जब न रह सके तब श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर
नवाकर वे बोले-
रघुवंशियों में कोई
भी जहाँ होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता,
जैसे
अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे हैं ।
हे सूर्य कुल रूपी
कमल के सूर्य! सुनिए, मैं स्वभाव ही से कहता हूँ,
कुछ
अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊँ,
तो
मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा लूँ । और
उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ,
हे
भगवन्! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है ।
ऐसा जानकर हे नाथ!
आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिए। धनुष को कमल की डंडी की
तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊँ ।
दो0-कहि न सकत रघुबीर
डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान।।252।।
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी।।
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।
काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना।।
नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान।।252।।
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी।।
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।
काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना।।
नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।
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