श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग: श्री रामजी की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठता है ।
प्रसंग: श्री रामजी की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठता है ।
श्री
रघुनाथजी की ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं। उनके नेत्रों
में प्रेम के आँसू भरे हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है ।
अच्छी
तरह नेत्र भरकर श्री रामजी की शोभा देखकर,
फिर
पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठा। वे मन ही मन कहने लगीं-
पिताजी ने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है,
वे
लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं । मंत्री डर रहे हैं,
इसलिए
कोई उन्हें सीख भी नहीं देता,
पंडितों
की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो वज्र से भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ
ये कोमल शरीर किशोर श्यामसुंदर!
हे
विधाता! मैं हृदय में किस तरह धीरज धरूँ,
सिरस
के फूल के कण से कहीं हीरा छेदा जाता है। सारी सभा की बुद्धि भोली हो गई है, अतः हे शिवजी के धनुष! अब तो मुझे
तुम्हारा ही आसरा है।
तुम
अपनी जड़ता लोगों पर डालकर,
श्री
रघुनाथजी के सुकुमार शरीर को देखकर उतने ही हल्के हो जाओ। इस प्रकार सीताजी के मन
में बड़ा ही संताप हो रहा है। निमेष का एक अंश भी सौ युगों के समान बीत रहा है ।
दो0-देखि देखि रघुबीर
तन सुर मनाव धरि धीर।।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर।।257।।
नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं।।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर।।257।।
नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं।।
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