गुरुवार, 8 सितंबर 2016

243-धनुषयज्ञ शाला में श्रीराम –लक्ष्मण की शोभा का वर्णन

श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग: धनुषयज्ञ शाला में श्रीराम –लक्ष्मण की शोभा का वर्णन

श्री राम –लक्ष्मण के हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कंधे बैलों के कंधे की तरह पुष्ट) हैं, उनके खड़े होने की शान सिंह की सी है और भुजाएँ विशाल एवं बल की भंडार हैं ।कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं।  हाथों में बाण और बाएँ सुंदर कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है ।
उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक हैं और पुतलियाँ भी नहीं चलते। जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए। तब उन्होंने जाकर मुनि के चरण कमल पकड़ लिए । विनती करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई। मुनि के साथ दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं ।
सबने रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा, परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनि ने राजा से कहा- रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है । ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा सुनकर राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला ।
* कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243
चौपाई :
* कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥  
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥1
* देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2
* करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3
* निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें