श्रीरामचरितमानस से ...
बालकांड
प्रसंग : खल वंदना
संतों का गुणगान करने के बाद तुलसीदास जी कहते
हैं कि अब मैं सच्चे भाव से
दुष्टों को प्रणाम करता हूँ,
जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के
भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है,
जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है
जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के
चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के
समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित
रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में
गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों
के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं ।
जो तेज में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान
हैं, पाप और
अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी
के हित का नाश करने के लिए केतु के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने
में ही भलाई है ।
जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम
बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को हजार मुख वाले
शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का
हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं ।
पुनः उनको राजा पृथु जिन्होंने भगवान का यश
सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों
के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ ।
जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है
और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं।
दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक
उनसे विनय करते हैं ।
तुलसीदासजी कहते हैं कि मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी
नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे
क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?
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