श्रीरामचरितमानस से ... बालकांड
प्रसंग : उमा और शिवजी का संवाद
सती का संदेह ...
..संदेह मिटाने के लिए
सीता का रूप धारण करना
तुलसीदासजी कहते
हैं कि
उमा संदेहवश मन-ही मन सोचती
है कि
देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो
विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी
की तरह स्त्री को खोजेंगे? फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ
हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता
था ।
यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना
चाहिए ।
जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने
मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं ।
ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान् श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से)
रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।
यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब
महादेवजी मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-
जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा
क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ ।
जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, भली-भाँति विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी
की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि क्या करूँ-कैसे परीक्षा लूँ?
इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का
कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब मालूम होता है ,विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है ।
जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क से कोई लाभ नहीं है । ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे ।
सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस
मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे सतीजी के विचारानुसार रामचंद्रजी आ रहे थे ।
जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
* बिष्नु
पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
* जद्यपि
प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
* जासु
कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
छंद :
* मुनि
धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
सोरठा :
* लाग
न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
* जौं
तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
* जैसें
जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
* इहाँ
संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
* होइहि
सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
दोहा :
* पुनि
पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
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