श्रीरामचरितमानस से ... बालकांड
प्रसंग: संत –असंत की प्रकृति
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष
रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं ।
विधाता जब इस प्रकार का विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन
गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से साधु भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक
जाते हैं ।
भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और
दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी मलिन स्वभाव नहीं मिटता है ।
.जो वेषधारी हैं, उन्हें भी साधु का सा वेष
बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल
हुआ ।
बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्
और हनुमान्जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है
और सभी लोग इसको जानते हैं ।
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही जल के संग
से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और
असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं ।
कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता
है और वही धुआँ जल, अग्नि
और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है ।
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में
बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते
हैं ।
महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही
रहता है, परन्तु
विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण
रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत
ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया ।
|
|
दोहा :
* जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
चौपाई :
* अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
* सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
* लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
* किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
* गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
* धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
दोहा :
* ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
* सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥ |
|
गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015
6-7: बालकांड :संत –असंत की प्रकृति
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें