. श्रीरामचरितमानस से
... बालकांड
प्रसंग : संदेह मिटाने के लिए सती का सीता का रूप धारण
करना
सती बार-बार मन
में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे . रामचंद्रजी आ रहे थे ।
सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी
चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को
जानते थे ।
सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने
वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी ,जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए ।
स्त्री स्वभाव के कारण उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने भी सतीजी छिपाव करना चाहती
हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- (पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को
प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया।) वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?
श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे
वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई
।-कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री
रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? यों सोचते-सोचते सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा
हो गई ।
श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी
को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके
उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी
सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। ऐसा सीताजी को इसलिए
दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।
तब उन्होंने पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री
रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं ।
सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। उन्होंने देखा कि भाँति-भाँति के वेष
धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं ।
उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि
देवता थे, उसी के अनुकूल उनकी सब शक्तियाँ भी थीं।
सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार
में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे ।
उन्होंने देखा कि अनेकों वेष धारण करके
देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री
रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे ।
सब जगह वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं।
उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में
बैठ गईं ।
फिर आँख खोलकर
देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न
दिख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे । जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार
परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो
*
पुनि
पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
चौपाई
:
*
लछिमन
दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
*
सती
कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
*
सती
कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
*
जोरि
पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
दोहा
:
*
राम
बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
चौपाई
:
*
मैं
संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
*
जाना
राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
*
फिरि
चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
*
देखे
सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
दोहा
:
*
सती
बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
चौपाई
:
*
देखे
जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
*
पूजहिं
प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
*
सोइ
रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
पुनि
पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
दोहा
:
*
गईं
समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
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