श्रीराम चरितमानस से ... बालकांड
प्रसंग :संत-असंत वंदना
तुलसीदास जी कहते
हैं कि अब मैं संत
और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया
है। वह अंतर यह है कि संत तो
बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और ।असंत मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं।
दोनों (संत और असंत) जगत में एक
साथ पैदा होते हैं, पर एक साथ पैदा होने वाले कमल और
जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते
ही रक्त चूसने लगती है। साधु अमृत के समान और असाधु मदिरा के समान है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक
ही है। शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति
बताई गई है।
।
भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के
अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्
कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है ।
भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच
नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष
की मारने में ।
दुष्टों के पापों और अवगुणों की और
साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ
गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो
सकता ।
भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए
हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों
ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि
.दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य ये सभी पदार्थ
ब्रह्मा की सृष्टि में हैं। वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर
दिया है ।
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को
गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल
को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं ।
|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें