श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग : सती के
सीता का रूप धारण करने से शिवजी को बहुत कष्ट हुआ , पर वह कुछ भी कहने में
विवश हैं । सती
को भी अपनी करनी से बड़ा पश्चाताप हुआ ।सती का यह कार्य क्षमा –योग्य तो कदापि
नहीं है ...अब
शिवजी का इस जन्म में साथ मिलना असंभव है ,यह जान कर
तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन
में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के
समान बीत रहा था ।
सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच
हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का
अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-
उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया,
परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो
शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है।
सतीजी के हृदय
की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का
स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश
गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं,
तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि
मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह
प्रेम का व्रत मन, वचन और कर्म से सत्य है,
तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र
वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम असह्य विपत्ति दूर हो जाए ।
दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित
थीं, उनको इतना दारुण दुःख था
कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी
ने समाधि खोली ।
शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब
जगत के स्वामी जागे गए हैं , उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों
में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया ।
शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने
लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को
प्रजापतियों का नायक बना दिया ।
जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में
अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको
प्रभुता पाकर मद न हो ।
दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे।
जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन
उन सबको बुलाया ।
दोहा :
*सती बसहिं कैलास तब
अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥
।
चौपाई :
* नित नव सोचु सती उर
भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
* सो फलु मोहि बिधाताँ
दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥
* कहि न जाइ कछु हृदय
गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥
* तौ मैं बिनय करउँ कर
जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥
दोहा :
* तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु
करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥
चौपाई :
* एहि बिधि दुखित
प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥
*राम नाम सिव सुमिरन
लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥
* लगे कहन हरि कथा
रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
* बड़ अधिकार दच्छ जब
पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4 |
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* दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥
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