श्रीरामचरितमानस से
... बालकांड
प्रसंग
: उमा और शिवजी का
संवाद :
राम के विरह को देख
कर जो शंकर जी की दशा हुई उससे सती को चिंता हुई ...
तुलसीदासजी कहते
हैं कि
-रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी
थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ
तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी
युक्ति ठीक नहीं बैठती थी .
इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए।
उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह तुरंत कपट मृग बन गया ।
मूर्ख रावण ने छल करके सीताजी को हर
लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर
भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर वहाँ सीताजी को न पाकर
उनके नेत्रों में आँसू भर आए ।
श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से
व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई
संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया ।
श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र
है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं।
जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय
में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं ।
श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को
देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। श्री रामचंद्रजी को शिवजी ने
नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया
।
जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की
जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले
श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के
साथ चले जा रहे थे ।
सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके
मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन कहने लगीं कि शंकरजी की सारा जगत्
वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं ।
उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद
परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके
हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती ।जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और
भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?
*
रावन
मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
*
ऐहि
बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
*
करि
छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
*
बिरह
बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
दोहा
:
*
अति
बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
चौपाई
:
*
संभु
समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
*
जय
सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
*
सतीं
सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
*
तिन्ह
नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
दोहा
:
*
ब्रह्म
जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
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