श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: नारद
मुनि द्वारा पर्वतराज की कन्या के वर का विवरण ।
हे पर्वतराज! तुम्हारी कन्या
सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है ।
नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर
पति-पत्नी (हिमवान् और मैना) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजी ने
भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योंकि
सबकी बाहरी दशा एक सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी ।
सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान् और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के
नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते, यह विचारकर पार्वती ने उन
वचनों को हृदय में धारण कर लिया ।
उन्हें शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मन में यह संदेह हुआ
कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर
वे सखी की गोद में जाकर बैठ गईं ।
देवर्षि की वाणी झूठी न होगी, यह विचार कर हिमवान्, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगीं। फिर हृदय में
धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिए, अब क्या उपाय किया जाए?
मुनीश्वर ने कहा- हे हिमवान्! सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ
लिख दिया है, उसको
देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं
मिटा सकते ।
तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह
सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैसा मैंने तुम्हारे सामने
वर्णन किया है ।
परन्तु मैंने वर के जो-जो दोष बतलाए हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी
में हैं। यदि शिवजी के साथ विवाह हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान ही
कहेंगे ।
जैसे विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई
दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं
कहता॥3॥
गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं
कहता। सूर्य, अग्नि और
गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता ।
यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते
हैं, तो वे
कल्पभर के लिए नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा
स्वतंत्र) हो सकता है?
दोहा :
* जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
चौपाई :
* सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥
* सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥
* उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
* झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
दोहा :
* कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥
चौपाई :
* तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥
* जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥
* जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥
*सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥
दोहा :
* जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
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