श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग : बिना निमंत्रण के सती का
पिता (दक्ष ) के घर जाने के निर्णय को
अनुचित मान कर भी शिव जी ने अपने गणों के साथ सती को भेजना ।पिता के यहाँ पति का अपमान होते देख सती
को बहुत क्रोध होना ।.
शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेवजी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर
उनको बिदा कर दिया।
भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मिली। बहिनें बहुत मुस्कुराती
हुई मिलीं ।
दक्ष ने तो उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सतीजी को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे। तब सती ने जाकर
यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखाई नहीं दिया ।
तब शिवजी ने जो कहा था, वह उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल
उठा।पति परित्याग का दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान् दुःख पति अपमान के कारण हुआ ।
यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण
दुःख हैं, तथापि, जाति अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध हो आया। माता ने
उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया ।
परन्तु उनसे शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं
हुआ। तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं-
* कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥
चौपाई :
* पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ
न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥
* दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी
जरे सब गाता॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख संभु कर भागा॥2॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख संभु कर भागा॥2॥
* तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु
समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥
* जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन
जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥
* सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥
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