श्रीरामचरितमानस से ... बालकांड
प्रसंग
: उमा और शिवजी का
संवाद
तुलसीदासजी कहते हैं कि
श्री रामजी की कथा चंद्रमा की किरणों के
समान है, जिसे संत रूपी चकोर सदा पान करते हैं।
ऐसा ही संदेह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था ।
अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और
शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से हुआ, उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जाएगा ।
एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि
के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर
जानकर उनका पूजन किया ।
मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से
कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना।
फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको रहस्य सहित भक्ति का
निरूपण किया ।
श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ
कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी
दक्षकुमारी सतीजी के साथ कैलास को चले ।
उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के
लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन
से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे ।
शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि
भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे ।
श्री शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर
बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं।
तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में भेद खुलने का डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे ।
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रामकथा
ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥
दोहा
:
*
कहउँ
सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
चौपाई
:
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एक
बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
*
रामकथा
मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥
*
कहत
सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।
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तेहि
अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
दोहा
:
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हृदयँ
बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥
सोरठा
:
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संकर
उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
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