श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग :
शिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी
सप्त ऋषि पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा
विश्वास देखकर हृदय में बड़े प्रसन्न
हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे ।
उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल
सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मुनियों ने रति
के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान् ने बहुत सुख माना ।
शिवजी के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल
ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी
शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया ।
फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों
को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्न पत्रिका
ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था ।
ब्रह्माजी ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और
देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी,
बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल कलश सजा दिए गए ।
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सब देवता अपने भाँति-भाँति
के वाहन और विमान सजाने लगे,
कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं ।
शिवजी के गण शिवजी का
श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी
ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने,
शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया ।
शिवजी के सुंदर मस्तक पर
चन्द्रमा, सिर पर
गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ,
गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष
अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं ।
एक हाथ में त्रिशूल और
दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को
देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं और कहती हैं कि इस वर के योग्य दुलहिन संसार
में नहीं मिलेगी ।
विष्णु और ब्रह्मा आदि
देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों पर
चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम था, पर दूल्हे के योग्य बारात न
थी ।
तब विष्णु भगवान ने सब
दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो
।
.* हियँ
हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥
चौपाई :
* सबु
प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥1॥
* हृदयँ
बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥2॥
* पत्री
सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ
समाती॥3॥
* लगन बाचि अज सबहि
सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥4॥
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दोहा :
* लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥
चौपाई :
* सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥
* ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥
* कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥
* बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥
.दोहा
:* बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥
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