श्रीरामचरितमानस से
... बालकांड
प्रसंग
:
मानस का रूप और माहात्म्य
तुलसीदासजी कहते हैं कि
.
।राम -कथा में जो रोमांच होता है, वही वाटिका, बाग और वन है और जो सुख होता है, वही सुंदर पक्षियों का विहार है। निर्मल मन ही माली है, जो प्रेमरूपी जल से सुंदर नेत्रों द्वारा उनको सींचता है ।
जो लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा
आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुंदर मानस के अधिकारी उत्तम
देवता हैं ।
जो अति दुष्ट और विषयी हैं, वे अभागे बगुले और कौए हैं, जो इस सरोवर के समीप नहीं जाते, क्योंकि यहाँ(इस मानस सरोवर में घोंघे, मेंढक और सेवार के समान विषय रस की नाना कथाएँ नहीं हैं ।
इसी कारण बेचारे कौवे और बगुले रूपी
विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान जाते हैं, क्योंकि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। श्री रामजी की कृपा बिना
यहाँ नहीं आया जाता ।
घोर कुसंग ही भयानक बुरा रास्ता है, उन कुसंगियों के वचन ही बाघ, सिंह और साँप हैं। घर के कामकाज और गृहस्थी के भाँति-भाँति के जंजाल ही अत्यंत
दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं ।
मोह, मद और मान ही बहुत से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकार के कुतर्क ही भयानक नदियाँ
हैं।
जिनके पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है
और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथजी प्रिय हैं, उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। अर्थात् श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता।
यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच
भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद आ जाती है।
हृदय में मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता ।
उससे उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान
तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई
उससे पूछने आता है, तो वह अपने अभाग्य की बात न कहकर सरोवर
की निंदा करके उसे समझाता है ।
ये सारे विघ्न उसको बाधा नहीं देते जिसे
श्री रामचंद्रजी सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में
स्नान करता है और महान् भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों
से) नहीं जलता ।
जिनके मन में श्री रामचंद्रजी के चरणों
में सुंदर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते। हे भाई!
जो इस सरोवर में स्नान करना चाहे, वह मन लगाकर
सत्संग करे ।
।
ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से
देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का
प्रवाह उमड़ आया ।
उससे वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस
कवितारूपिणी नदी का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर
मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं ।
यह सुंदर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी
बड़ी पवित्र है और कलियुग के छोटे-बड़े पाप रूपी तिनकों और वृक्षों को जड़ से
उखाड़ फेंकने वाली है ।
तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस
नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम
अयोध्याजी हैं ।
दोहा:
*
समन
अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥
चौपाई
:
*
कीरति
सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥
*
बरनब
राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥
*
बरषा
घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥
*
सती
सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥
दोहा
:
*
अवलोकनि
बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥
चौपाई
:
*
आरति
बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥
*
राम
सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥
*
काम
कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥
*
जिन्ह
एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥
दोहा
:
*
मति
अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43 क॥
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43 क॥
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