श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : शिवजीका विवाह
मैना और
सभी नारियों को
नारद के वचन सुनकर
सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया ।तब मैना और हिमवान
आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के
सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए ।
नगर में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण
के कलश सजाए। पाक शास्त्र में जैसी रीति है,
उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई ।
जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार
(भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है?
हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति
के देवताओं को बुलवाया ।
भोजन (करने वालों) की बहुत सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने
लगे। स्त्रियों की मंडलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने
लगीं ।
सब सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने
लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में
बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा
जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।
फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान् को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और
विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा।
सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए।
वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं ।
वेदिका पर एक अत्यन्त सुंदर दिव्य सिंहासन था, जिस की सुंदरता का
वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि
वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने
स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गए ।
फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके
उन्हें ले आईं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा
कवि कौन है, जो
उस सुंदरता का वर्णन कर सके?
पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन
ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा
नहीं कही जा सकजगज्जननी पार्वतीजी की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते
नहीं बनता। वेद, शेषजी
और सरस्वतीजी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं,
तब मंदबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुंदरता और शोभा की
खान माता भवानी मंडप के बीच में, जहाँ शिवजी थे,
वहाँ गईं। वे संकोच के मारे पति शिवजी के
चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं रसपान कर रहा था।
मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी
ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका
न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं,
अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?) ।
दोहा :
* सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥
चौपाई :
* तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद
बंदे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥
भाँति अनेक भई जेवनारा।
सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥
*सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥3॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥3॥
* बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन
सुआरा॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥
छन्द :
* गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन
सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
दोहा :
*बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥
चौपाई :
* बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन
दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
* सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि
बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥
* बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै
आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥
* जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह
प्रनामा॥
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥
छन्द :
* कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
दोहा :
* मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥
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