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श्रीरामचरितमानस से ... बालकांड
प्रसंग : राम –कथा की महिमा
तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं
भी नहीं हैं ।
प्रभु श्री रामचन्द्रजी तो वृक्ष के नीचे और
बंदर डाली पर अर्थात कहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्री रामजी
और कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर कूदने वाले बंदर, परन्तु ऐसे बंदरों को भी उन्होंने अपने
समान बना लिया।
हे श्री रामजी! आपकी अच्छाई से सभी का भला है अर्थात
आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है, यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा
कल्याण ही होगा ।
इस प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर
सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से कलियुग के पाप
नष्ट हो जाते हैं ।
मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा
मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा, सब सज्जन सुख का
अनुभव करते हुए उसे सुनें ।
शिवजी ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजी को
सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया ।
उन काकभुशुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया
और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता
(याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को
जानते हैं ।
वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को
हथेली पर रखे हुए आँवले के समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान भगवान की
लीलाओं का रहस्य जानने वाले हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और
समझते हैं ।
फिर वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने
गुरुजी से सुनी, परन्तु उस
समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार
अच्छी तरह समझा नहीं ।
श्री रामजी की गूढ़ कथा के वक्ता और
श्रोता दोनों पूरे ज्ञानी होते हैं। मैं
कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?
तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ
में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे
मन को संतोष हो ।
जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा
से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने संदेह, अज्ञान और भ्रम को
हरने वाली कथा रचता हूँ, जो संसार रूपी नदी के पार करने के
लिए नाव है ।
रामकथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने
वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए
मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली
लकड़ी) है, अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने
वाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुंदर संजीवनी जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत
की नदी है, जन्म-मरण
रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रम रूपी मेंढकों को खाने के लिए सर्पिणी है ।
यह रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश
करने वाली और साधु रूप देवताओं के कुल का हित करने वाली पार्वती (दुर्गा) है। यह
संत-समाज रूपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मीजी के समान है और सम्पूर्ण विश्व का भार
उठाने में अचल पृथ्वी के समान है ।
यमदूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत
में यमुनाजी के समान है और जीवों को मुक्ति देने के लिए मानो काशी ही है। यह श्री
रामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिए हुलसी (तुलसीदासजी की
माता) के समान हृदय से हित करने वाली है ।
यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति
की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति
के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है ।
दोहा :
* प्रभु तरु तर कपि डार पर ते
किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥29 क॥
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥29 क॥
* राम निकाईं रावरी है सबही को
नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29 ख॥
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29 ख॥
* एहि बिधि निज गुन दोष कहि
सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29 ग॥
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29 ग॥
चौपाई :
* जागबलिक जो कथा सुहाई।
भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥
* संभु कीन्ह यह चरित सुहावा।
बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥
* तेहि सन जागबलिक पुनि पावा।
तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥3॥
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥3॥
* जानहिं तीनि काल निज ग्याना।
करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥4॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥4॥
दोहा :
* मैं पुनि निज गुर सन सुनी
कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30 क॥
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30 क॥
* श्रोता बकता ग्याननिधि कथा
राम कै गूढ़।
किमि समुझौं मैं जीव जड़
कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30ख॥
चौपाई :
* तदपि कही गुर बारहिं बारा।
समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥
* जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें।
तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥
* बुध बिश्राम सकल जन रंजनि।
रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
* रामकथा कलि कामद गाई। सुजन
सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥4॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥4॥
* असुर सेन सम नरक निकंदिनि।
साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥
* जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी।
जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥
* सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी।
सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥
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