श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग :नारद मुनि की बातों से पार्वती
की माँ का चिंतित होना ;
पर्वतराज से अयोग्य वर से पार्वती का ब्याह नहीं रचाने का निर्णय लेना ;
हेमवान के समझाने पर भी उसकी शंका नहीं मिटना ;
स्तिथि जान कर पार्वती का यह कहना- -माँ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ, मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि
मुझे
एक सुंदर
गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है ....
नारदजी ने भगवान का स्मरण करके पार्वती को आशीर्वाद दिया।
और कहा कि- हे पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब कल्याण ही होगा ।
यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र
हुआ उसे सुनो।
पति को एकान्त में
पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा ।
जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लड़की चाहे
कुमारी ही रहे मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती क्योंकि हे
स्वामिन्! पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है ।
यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत
स्वभाव से ही जड़ होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में
सन्ताप न हो ।
इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं।
तब हिमवान् ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारदजी के वचन झूठे नहीं
हो सकते ।
हे प्रिये! सब सोच छोड़कर श्री भगवान का स्मरण करो, जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे ।
अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि
वह ऐसा तप करे, जिससे
शिवजी मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा ।
नारदजी के वचन रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिवजी समस्त
सुंदर गुणों के भण्डार हैं। यह विचारकर तुम संदेह को छोड़ दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलंक
हैं ।
पति के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत
पार्वती के पास गईं। पार्वती को देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उसे स्नेह के
साथ गोद में बैठा लिया ।
फिर बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला
भर आया, कुछ कहा
नहीं जाता। जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। माता के मन की दशा को जानकर वे
माता को सुख देने वाली कोमल वाणी से बोलीं
-माँ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ, मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि
मुझे एक सुंदर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है।
दोहा :
* अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
चौपाई :
* कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥
* जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥2॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥2॥
* जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥
* अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥
दोहा :
* प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥
चौपाई :
* अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥
* नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥2॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥2॥
* सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥
दोहा :
* बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥
दोहा :
* सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥
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