श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग
: कामदेव का शिवजी के पास पहुँचना
।जगत में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गए ।
सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं
को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं
और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने लगीं ।
जब जड़ (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे
पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए ।
सब लोक कामान्ध
होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल-
ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर ।तुलसीदासजी कहते हैं कि मैंने इनकी दशा का वर्णन
नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान् योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए ।
जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो
गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को
पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड
के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक रहा।
किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण
किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी
ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे ।
दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर
कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो
गया।
तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले लोग मद
(नशा) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन
है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य
रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयंकर) शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो
गया ।
लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और
करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही
सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो
गईं।
वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम
उम़ड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग
उठा।
मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुंदरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा
मित्र शीतल-मन्द-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर
नाचने लगीं ।
।कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा ।
*जे सजीव जग अचर चर नारि
पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥
चौपाई
:
*
सब
के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥
*
जहँ
असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥
*
मदन
अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥
*
इन्ह
कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥
छंद
:
*
भए
कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
सोरठा
:
*
धरी
न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
चौपाई
:
*उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ
लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥
*भए तुरत सब जीव सुखारे।
जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥
*
फिरत
लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥
*
बन
उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥
छंद
:
*
जागइ
मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
दोहा
:
*
सकल
कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥
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