गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

बालकांड :(4) ब्राह्मण -संत वंदना

श्रीरामचरितमानस से ... बालकांड

प्रसंग: ब्राह्मण -संत वंदना


 गोस्वामी तुलसीदासजी  पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हैं ,
जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं।      
फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित
 सुंदर वाणी से प्रणाम करते  हैं ।
संतों का चरित्र कपास के चरित्र के समान शुभ है,
जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है।
कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है,
 इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है,
संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है,
इसलिए वह विशद है और कपास में गुण  होते हैं,
इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है,
 इसलिए वह गुणमय है। कपास जैसे ओढ़े जाने, काते जाने
और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत
होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है,
उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है,
 जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है ।
संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है,
जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है।
जहाँ राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं ।

विधि और निषेध रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को
हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु
और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं,
 जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं ।
उस संत समाज रूपी प्रयाग में अपने धर्म में जो अटल विश्वास है,
 वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज है।
वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में,
सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है
और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है ।

 तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है,
उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है ।
* बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2

* साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3

* मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4

* बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5

* बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6

* अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7


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