श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग : नारद मुनि द्वारा पर्वतराज की कन्या के
वर का विवरण
तथा शिव जी के प्राप्ति के उपाय
गोस्वमी तुलसीदासजी कहते हैं कि
यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते
हैं, तो वे
कल्पभर के लिए नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान सर्वथा स्वतंत्र
हो सकता है?
जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान
नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही
भेद है ।
शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना
बड़ी कठिन है, फिर भी तप
करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं ।
यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि
संसार में वर अनेक हैं, पर इसके
लिए शिवजी को छोड़कर दूसरा वर नहीं है ।
शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के
मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर
भी वांछित फल नहीं मिलता
ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारदजी ने पार्वती को
आशीर्वाद दिया। (और कहा कि-) हे पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा ।
दोहा :
* जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
* सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥
* संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥
* जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥
* बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥
दोहा :
* अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
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