श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग :
देवताओं का शिवजी से ब्याह के लिए
प्रार्थना करना
शिवजी के वचन सुनकर रति चली गई। ब्रह्मादि
देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले ।
फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता
वहाँ गए, जहाँ कृपा
के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब
शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए ।
कृपा के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि
हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ ।
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हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम
उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं।
हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा
कुछ कीजिए, जिससे सब
लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने
रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया ।
हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव
ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए।
ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री
रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके 'जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो' ऐसा कहने लगे॥3॥
उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने
तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वतीजी थीं और
उनसे छल से भरे मीठे वचन बोले-
नारदजी के उपदेश से तुमने
उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने काम को
ही भस्म कर डाला ।
* रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥ देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥2॥
* सब सुर बिष्नु बिरंचि
समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥3॥
* बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु
अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥4॥
*सकल सुरन्ह के हृदयँ अस
संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥
चौपाई :
* यह उत्सव देखिअ भरि लोचन।
सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥
* सासति करि पुनि करहिं
पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥2॥
* सुनि बिधि बिनय समुझि
प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥
* अवसरु जानि सप्तरिषि आए।
तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥
* कहा हमार न सुनेहु तब नारद
कें उपदेस॥
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥ |
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