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दोहा :
सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा
पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है।
तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर
नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से पति-पत्नी
रूप में भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया ।
स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण
करते हुए कैलास को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो।
आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की ।
आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री
रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ
हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने
सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-
हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम
और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी
ने कुछ न कहा ।
सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान
गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है ।
प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी दूध के साथ मिलकर
दूध के भाव बिकता है, परन्तु
फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही दूध फट जाता हैऔर स्वाद जाता रहता है ।
अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और
इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उन्होंने समझ लिया कि
शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा ।
शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा
त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं
बनता, परन्तु
हृदय भीतर ही भीतर कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा ।
वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़
के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड
और अपार समाधि लग गई।
तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था।
इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था ।
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गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015
56-58 :.बालकांड : शिवजी द्वारा सती का त्याग,
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